पूर्व काल में अनेक रसायनज्ञ हुए, उनमें से कुछ की कृतियों निम्नानुसार हैं-

1-नागार्जुन-रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक

2-वाग्भट्ट - रसरत्न समुच्चय

3-गोविंदाचार्य - रसार्णव

4-यशोधर - रस प्रकाश सुधाकर

5-रामचन्द्र - रसेन्द्र चिंतामणि

6-सोमदेव- रसेन्द्र चूड़ामणि


रस रत्न समुच्चय ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-


(1) महारस (2) उपरस (3) सामान्यरस (4) रत्न (5) धातु (6) विष (7) क्षार (8) अम्ल (9) लवण (10) लौहभस्म।


महारस :- (१) अभ्रं (२) वैक्रान्त (३) भाषिक (४) विमला (५) शिलाजतु (६) सास्यक (७)चपला (८) रसक

उपरस :- (१) गंधक (२) गैरिक (३) काशिस (४) सुवरि (५) लालक (६) मन: शिला (७) अंजन (८) कंकुष्ठ

सामान्य रस :- (१) कोयिला (२) गौरीपाषाण (३) नवसार (४) वराटक (५) अग्निजार (६) लाजवर्त (७) गिरि सिंदूर (८) हिंगुल (९) मुर्दाड श्रंगकम्‌

इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं। अम्ल का भी वर्णन है। द्वावक अम्ल और सर्वद्रावक अम्ल । विभिन्न प्रकार के क्षार का वर्णन इन ग्रंथों में मिलता है तथा विभिन्न धातुओं की भस्मों का वर्णन आता है।

प्रयोगशाला - ‘रस-रत्न-समुच्चय‘ अध्याय 7 में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें 32 से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं- (1) दोल यंत्र (2) स्वेदनी यंत्र (3) पाटन यंत्र (4) अधस्पदन यंत्र (5) ढेकी यंत्र (6) बालुक यंत्र (7) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र (8) विद्याधर यंत्र (9) धूप यंत्र (10) कोष्ठि यंत्र (11) कच्छप यंत्र (12) डमरू यंत्र।


प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।

जस्ते का स्वर्ण रंग में बदलना-हम जानते हैं जस्ता  शुल्व (तांबे) से तीन बार मिलाकर गरम किया जाए तो पीतल  धातु बनती है, जो सुनहरी मिश्रधातु है। नागार्जुन कहते हैं-


क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।

करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्‌॥

(रसरत्नाकार-३)

अर्थात्‌ - धातुओं की जंगरोधी क्षमता-गोविन्दाचार्य ने धातुओं के जंगरोधन या क्षरण रोधी क्षमता का क्रम से वर्णन किया है।आज भी वही क्रम माना जाता है।


सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।

लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्‌॥

(रसार्णव-७-८९-१०)

अर्थात्‌ - धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।


तांबे से मथुर तुप्ता (कॉपर सल्फेट ) बनाना-

ताम्रदाह जलैर्योगे जायते तुत्यकं शुभम्‌

अर्थात्‌ - तांबे के साथ तेजाब का मिश्रण होता है तो कॉपर सल्फेट प्राप्त होता है।


भस्म:- रासायनिक क्रिया द्वारा धातु के हानिकारक गुण दूर कर उन्हें राख में बदलने पर उस धातु की राख को भस्म कहा जाता है। इस प्रकार मुख्य रूप से औषधि में लौह भस्म , सुवर्ण भस्म  , रजत भस्म  , ताम्र भस्म  , वंग भस्म  , सीस भस्म   प्रयोग होता है।


वज्रसंधात  -वराहमिहिर अपनी बृहत्‌ संहिता में कहते हैं-

अष्टो सीसक भागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।

मया कथितो योगोऽयं विज्ञेयो वज्रसड्घात:॥

अर्थात्‌ -एक यौगिक जिसमें आठ भाग शीशा, दो भाग कांसा और एक भाग लोहा हो उसे मय द्वारा बताई विधि का प्रयोग करने पर वह वज्रसङ्घात बन जाएगा।


आसव बनाना-

चरक के अनुसार ९ प्रकार के आसव बनाने का उल्लेख है।


१. धान्यासव 

२. फलासव 

३. मूलासव 

४. सरासव 

५. पुष्पासव 

६. पत्रासव 

७. काण्डासव 

८. त्वगासव 

९. शर्करासव 

इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के गंध, इत्र सुगंधि के सामान आदि का भी विकास हुआ था।


ये सारे प्रयोग मात्र गुरु से सुनकर या शास्त्र पढ़कर नहीं किए गए। ये तो स्वयं प्रत्यक्ष प्रयोग करके सिद्ध करने के बाद कहे गए हैं। इसकी अभिव्यक्ति करते हुए अनुमानत: १३वीं सदी के रूद्रयामल तंत्र के एक भाग रस कल्प में रस शास्त्री कहता है।


इति सम्पादितो मार्गो द्रुतीनां पातने स्फुट:

साक्षादनुभवैर्दृष्टों न श्रुतो गुरुदर्शित:

लोकानामुपकाराएतत् सर्वें निवेदितम

सर्वेषां चैव लोहानां द्रावणं परिकीर्तितम् -

(रसकल्प अध्याय.3)

अर्थात् - गुरुवचन सुनकर या किसी शास्त्र को पढ़कर नहीं अपितु अपने हाथ से इन रासायनिक प्रयोगों और क्रियाओं को सिद्धकर मैंने लोक हितार्थ सबके सामने रखा है।

प्राचीन रसायन शास्त्रियों की प्रयोगशीलता का यह एक प्रेरणादायी उदाहरण है।


धातु विज्ञान का भारत में प्राचीन काल से व्यावहारिक जीवन में उपयोग होता रहा है। यजुर्वेद के एक मंत्र में निम्न उल्लेख आया है-

अश्मा॑ च मे॒ मृत्ति॑का च मे गि॒रय॑श्च मे॒ पर्व॑ताश्च मे॒ सिक॑ताश्च मे॒ वन॒स्पत॑यश्च मे॒ हिर॑ण्यं च॒ मेऽय॑श्च मे श्या॒मं च॑ मे लो॒हं च॑ मे॒ सीसं॑ च मे॒ त्रपु॑ च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥१३ ॥(यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:13)

पदार्थान्वयभाषाः - मेरा  पत्थर और हीरा आदि रत्न  मेरी अच्छी माटी और साधारण माटी  मेरे मेघ  और अन्न आदि मेरे  बड़े-छोटे पर्वत और पर्वतों में होनेवाले पदार्थ मेरी बड़ी बालू और छोटी-छोटी बालू मेरे  बड़ आदि वृक्ष  और आम आदि वृक्ष मेरा सब प्रकार का धन तथा चाँदी आदि मेरा लोहा  और शस्त्र (मे) मेरा (श्यामम्) नीलमणि वा लहसुनिया आदि और चन्द्रकान्तमणि मेरा सुवर्ण तथा कान्तिसार आदि  मेरा सीसा और लाख  मेरा  जस्ता  और पीतल आदि ये सब सङ्ग करने योग्य व्यवहार से समर्थ हों ॥१३ ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य लोग पृथिवीस्थ पदार्थों को अच्छी परीक्षा से जान के इनसे रत्न और अच्छे-अच्छे धातुओं को पाकर सबके हित के लिये उपयोग में लावें ॥१३ ॥


रामायण, महाभारत, पुराणों, श्रुति ग्रंथों में भी सोना (सुवर्ण, हिरण्य), लोहा (स्याम), टिन (त्रपु), चांदी (रजत), सीसा, तांबा, (ताम्र), कांसा आदि का उल्लेख आता है।


धातु विज्ञान से सम्बंधित व्यवसाय करने वाले कुछ लोगों के नाम-

कर्मरा- कच्ची धातु गलाने वाले

धमत्र - भट्टी में अग्नि तीव्र करने वाले

हिरण्यक - स्वर्ण गलाने वाले

खनक - खुदाई कर धातु निकालने वाले।



कीमियागरी यानी कौतुकी विद्या। इसी तरह से भारतीय मनीषियों की जो मौलिक देन है, वह रसायन विद्या रही है। हम आज केमेस्‍ट्री पढ़कर सूत्रों को ही याद करके द्रव्‍यादि बनाने के विषय को रसायन कहते हैं मगर भारतीयों ने इसका पूरा शास्‍त्र विकसित किया था। यह आदमी का कायाकल्‍प करने के काम आता था। उम्रदराज होकर भी कोई व्‍यक्ति पुन: युवा हो जाता और अपनी उम्र को छुपा लेता था।

पिछले दिनो भूलोकमल्‍ल चालुक्‍य राज सोमेश्‍वर के ‘मानसोल्‍लास’ के अनुवाद में लगने पर इस विद्या के संबंध में विशेष जानने का अवसर मिला। उनसे धातुवाद के साथ रसायन विद्या पर प्रकाश डाला है। बाद में, इसी विद्या पर आडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्रदेव ने 1520 में ‘कौतुक चिंतामणि’ लिखी वहीं ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों ने काकचण्‍डीश्‍वर तंत्र, दत्‍तात्रेय तंत आदि कई पुस्‍तकों का सृजन किया जिनमें पुटपाक विधि से नाना प्रकार द्रव्‍य और धातुओं के निर्माण के संबंध में लिखा गया।

मगर रसायन प्रकरण में कहा गया है कि रसायन क्रिया दो प्रकार की होती है-1 कुटी प्रवेश और 2 वात तप सहा रसायन। मानसोल्‍लास में शाल्‍मली कल्‍प गुटी, हस्तिकर्णी कल्‍प, गोरखमुण्‍डीकल्‍प, श्‍वेत पलाश कल्‍प, कुमारी कल्‍प आदि का रोचक वर्णन है, शायद ये उस समय तक उपयोग में रहे भी होगे, जिनके प्रयोग से व्‍यक्ति चिरायु होता, बुढापा नहीं सताता, सफेद बाल से मुक्‍त होता… जैसा कि सोमेश्‍वर ने कहा है – 

एवं रसायनं प्रोक्‍तमव्‍याधिकरणं नृणाम्। नृपाणां हितकामेन सोमेश्‍वर महीभुजा।। 

(मानसोल्‍लास, शिल्‍पशास्‍त्रे आयुर्वेद रसायन प्रकरणं 51)

ऐसा विवरण मेरे लिए ही आश्‍चर्यजनक नहीं थी, अपितु अलबीरूनी को भी चकित करने वाला था। कहा, ‘ कीमियागरी की तरह ही एक खास शास्‍त्र हिंदुओं की अपनी देन है जिसे वे रसायन कहते हैं। यह कला प्राय वनस्‍पतियों से औषधियां बनाने तक सीमित थी, रसायन सिद्धांत के अनुसार उससे असाध्‍य रोगी भी निरोग हो जाते थे, बुढापा नहीं आता,,, बीते दिन लौटाये जा सकते थे, मगर क्‍या कहा जाए कि इस विद्या से नकली धातु बनाने का काम भी हो रहा है। 

(अलबीरुनी, सचाऊ द्वारा संपादित संस्‍करण भाग पहला, पेज 188-189)


है न अविश्‍वसनीय मगर, विदेशी यात्री की मुहर लगा रसायन…।

लौहस्तम्भ : अद्भुत धातु मिश्रण


हमारे यहां लौह कितने प्रकार का रहा और उसको भी कितने प्रकार से काम में लिया गया? यह कम रोचक विषय नहीं है। धार में जब मैंने विजय मन्दिर में लौह स्तम्भ के तीन टुकड़े देखे तो क्या क्या याद नहीं आया। दिल्ली, आबू, ऊंताला आदि के लौह स्तम्भ, त्रिशूल तक के कौतुक स्मरण हुए।

लोहस्‍तंभ को देखकर किसे आश्‍चर्य नहीं होता। यह किस धातु का बना कि आज तक उस पर जंग नहीं लगा। ऐसी तकनीक गुप्‍तकाल के आसपास भारत के पास थी। हां, उस काल तक धातुओं का सम्मिश्रण करके अद्भुत वस्‍तुएं तैयार की जाती थी। ऐसे मिश्रण का उपयोग वस्‍तुओं को संयोजित करने के लिए भी किया जाता था। यह मिश्रण ” वज्रसंघात ” कहा जाता था।

शिल्पियों की जो शाखा मय नामक शिल्पिवर के मत स्‍वीकारती थी, इस प्रकार का वज्र संघात तैयार करती थी। उस काल में मय का जाे ग्रंथ मौजूद था, उसमें इस प्रकार की कतिपय विधियों की जानकारी थी, हालांकि आज मय के नाम से जो ग्रंथ हैं, उनमें शिल्‍प में मन्दिर और मूर्ति बनाने की विधियां अध्‍ािक है, मगर 580 ई. के आसपास वराहमिहिर को मय का उक्‍त ग्रंथ प्राप्‍त था। वराहमिहिर ने मय के मत को उद्धृत करते हुए वज्रसंघात तैयार करने की विधि को लिखा है-

अष्‍टौ सीसकभागा: कांसस्‍य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मय कथितो योगोsयं विज्ञेयाे वज्रसंघात:।।
(बृहत्‍संहिता 57:8)

मय ने 8 : 2 :1: अनुपात में क्रमश: सीसा, कांसा और पीतल को गलाने का नियम दिया था, इससे जो मिश्रण बनता था, वह वज्रसंघात कहा जाता था। यह कभी नहीं हिलता था और वज्र की तरह चिपकाने के काम आता था। वराहमिहिर के इस संकेत के आधार पर 9वीं सदी में कश्‍मीर के पंडित उत्‍पल भट ने खाेजबीन की और मय का वह ग्रंथ खोज निकाला था। उसी में से मय का वह श्‍लोक वराहमिहिर की टीका के साथ लिखा था-

संगृह्याष्‍टौ सीसभागान् कांसस्‍य द्वौ तथाशंकम्।
रीतिकायास्‍तु संतप्‍तो वज्राख्‍य: परिकीर्तित:।। 

आज वह ग्रंथ हमारे पास नहीं। मगर, इस श्‍लोक में कहा गया है कि इस मिश्रण के लिए सभी धातुओं को मिलाकर तपाया जाता था। इसके लिए उचित तापमान के संबंध में जरूर शिल्पियों को जानकारी रही होंगी, वे उन मूषाओं के बारे में भी जानते रहे होंगे, जो काम आती थीं।
मगर, क्‍या हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी है,,, बस यही तो समस्‍या है।