हिग्स_बोसोन_या_गाड_ पार्टीकल_क्या_है



कुरान ,बाईबल कहता है - अल्लाह सातवें आसमान पर है 

सनातन धर्म ने कहा -कण कण में है भगवान और विज्ञान ने साबित कर दिया।

स्विटज़रलैंड में यूरोपियन सेंटर फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न ) के वैज्ञानिकों ने घोषणा की है कि ‘गाड पार्टिकल ‘यानि ईश्वरीय कण की खोज कर ली गई है।इसे वैज्ञानिक अपनी भाषा में ‘हिग्स बोसोन ‘के नाम से भी प्रतिपादितकर रहे हैं।इस खोज को इन वैज्ञानिको ने गत 100 वर्षों सबसे बड़ी उपलब्धि की संज्ञा दी है।

इस पार्टिकल की खोज के लिए ही फ्रांस और स्विटजरलैंड की सीमा पर 17 मील लंबी सुरंग बनाई गई थी जिसमें स्थित एक खास मशीन ‘द लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर’ में प्रयोग किए जा रहे थे। 1960 के दशक में ब्रिटिश मूल के वैज्ञानिक प्रोफेसर पीटर हिग्स ने एक सिद्धांत को विस्तार दिया ।जिसके अनुसार भौतिकी विज्ञान के विशेषज्ञ मानते हैं ‘हिग्स बोसोन‘ कण ही समस्त सब-एटॉमिक जगत को मास यानी द्रव्यमान देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पार्टिकल फिजिक्स के सबसे अंतिम कड़ी हिग्स बोसोन कणों का महत्व इससे समझा जा सकता है कि अगर ये कण न हों, तो विज्ञान द्रव्य की व्याख्या करने में असमर्थ रहेगा ।

हिग्स बोसोन कण ही हमें यह बताते हैं कि दूसरे सभी कणों का कुछ द्रव्यमान क्यों होता है ? गॉड पार्टिकल की चर्चा इस धारणा के साथ शुरू हुई थी कि किसी भी चीज को भार देने वाले अणुओं में अपना कोई भार नहीं होता, लेकिन यदि कणों में भार नहीं होता, तो कोई भी चीज यानी अणु-परमाणु या फिर यह ब्रह्मांड भी नहीं बन सकता था। नियमानुसार अगर यह द्रव्यमान नहीं होगा तो किसी भी चीज के परमाणु उसके भीतर घूमते रहेंगे और आपस में जुड़ेंगे ही नहीं। इस सिद्धांत के मुताबिक हर खाली जगह में एक शून्य स्थान है। इस फील्ड में ही किसी अणु को भार प्रदान करने वाले कण होते हैं जिन्हें हिग्स बोसोन कहा गया है। इन हिग्स कणों की थ्योरी को भारतीय मूल के भौतिक विज्ञानी सत्येंद्र चन्द्र बोस ने अपने अनुसंधानों के सहारे आगे बढ़ाया था, इसलिए इन्हें दोनों वैज्ञानिकों के संयुक्त नाम ‘हिग्स बोसोन‘ थ्योरी के नाम से जाना गया ।

असल में वैज्ञानिक जिस ईश्वरीय कण को खोजने की बात कर रहे हैं ,वो भारतीय संस्कृति और सभ्यता का वो एक ऐसा आधार बिंदु है,जहाँ से ज्ञान की परम्परा का श्री गणेश हुआ। हज़ारों वर्ष पूर्व भारतीय ऋषियों ने इस ऊर्जा क्षेत्र को न सिर्फ अनुभव ही किया था ,अपितु अपने अनेक ग्रथों में इसका सविस्तार वर्णन भी किया था। इतिहासकार मानतें हैं की ‘रामायण काल‘ ‘महाभारत काल ‘से 5 हज़ार वर्ष पूर्व रहा था और आज महाभारत को भी 5 हज़ार वर्ष से अधिक हो चुके हैं अतः भारत में वेदों की उत्पत्ति का काल लगभग 10 हज़ार वर्ष से काफी पहले का माना गया है. क्योंकि रामायण काल में जीवन का सामाजिक ताना -बाना वैदिक नियमों के अनुसार निर्धारित था।

सबसे प्राचीन वेद ‘ऋगवेद‘ में एक श्लोक आता है –‘ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंच्याम जगत्यां जगत ‘ अर्थात –‘ईश्वर इस जग के कण–कण में विद्यमान हैं।’

हिग्स बोसोन की थ्योरी भी यही बात बोलती है थोड़े से शाब्दिक परिवर्तन के साथ सिद्धांत कहता है सभी कणों का कुछ द्रव्यमान क्यों होता है ? किसी भी चीज को भार देने वाले अणुओं में अपना कोई भार नहीं होता, लेकिन यदि कणों में भार नहीं होता, तो कोई भी चीज यानी अणु-परमाणु या फिर यह ब्रह्मांड भी नहीं बन सकता था।

‘न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चैन्नम

हदा मनीषा मनसभि क्ल्रिप्तोये एतदिविदुरमृतास्ते भवन्ति ।।‘

(कठोपनिषद /अध्याय –2/बल्ली-3/श्लोक –9)

अर्थात - उस ईश्वरीय अनुभूति का दृश्य दृष्टि से परे है।उन ईश्वरीय कणों को देखने और अनुभव करने के लिए इन्द्र्यीतीत अनुभूति की आवश्यकता है।आँख ही क्या उस परम ऊर्जा के क्षेत्र को सामान्यता मानवीय अंगों से देखा जाना संभव नहीं है।

उधर देखिये विज्ञान क्या कहता है – यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के विज्ञानियों को 1980 में कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि ये कण होते हैं। 90 के दशक में साइंस पत्रिका ‘नेचर‘ के हवाले से शोध के प्रमुख पीटर रेंटन ने यह स्पष्ट किया था कि मूलभूत कणों की करीब 10 खरब टक्करों में कोई एक मौका ऐसा आता है, जब बोसोन कणों की प्रतिच्छाया को पकड़ा जा सकता है। यह काम भी इतना आसान नहीं है, क्योंकि इस प्रक्रिया में बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकलती है। इसके अलावा, चूंकि ये कण अत्यधिक क्षणभंगुर होते हैं और पैदा होने के कुछ ही क्षणों में नष्ट हो जाते हैं, इसलिए इन्हें देख तक पाना बेहद मुश्किल काम है।

वेद कहता है–‘ न तस्य प्रतिमा अस्ति”.(यजुर्वेद /32/3)

उस ईश्वर की प्रतिमापरिमाण ,उस के तुल्य अवधि का साधन भी नहीं है।इसी प्रकार से अन्यत्र ‘यजुर्वेद”के 40 वें अध्याय के 8 वें मंत्र में पुनः कहा गया है कि ईश्वर ‘अकाय ‘है, यानी सूक्षम्तम

कण और कारण शरीर शून्य है। वह प्रभु एक ”अणु ” है।अर्थात वह छिद्र रहित और अछेद है। वेदों में ईश्वरीय सत्ता को ‘अस्नाविरम” अर्थात नस नाड़ी से विमुक्त बताया गया है

यही नहीं और आगे देखिये –

”एष सर्वेषु भूतेषु गुढोत्मा न प्रकाशते

दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्य सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।

(कठोपनिषद /अध्याय-1/वल्ली-3/श्लोक-12)

अर्थात सम्पूर्ण भूतों से छिपा हुआ वह परमात्मा प्रकाशमान नही होता . उस ईश्वरीय अनुभूति को सूक्ष्मदर्शी पुरुषों द्वारा अपनी तीव्र और सूक्ष्म बुद्धि से देखा जाता है।इन शास्त्र वचनों से यह स्पष्ट है की वो परब्रह्म परमात्मा भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता .कुछ लोग इस पर भी शंका कर सकते हैं कि आँखों से न दिखाई देने के कईं अन्य कारण भी हो सकते हैं , हो सकता है परमात्मा अँधेरे के कारण न दिखाई देता हो ? उससे हम सूर्य के, चाँद के,तारागण के ,बिजली के अथवा अग्नि के प्रकाश में देखने में समर्थ हो सकते हों.

इन प्राथमिक शंकाओं के निर्मूलन भी शास्त्र में देखे जा सकते हैं .

यथा –

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतो यमिग्न :

तमेव भांतमनु भाति सर्वंतस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।‘

(कठोपनिषद /अध्याय –2/वल्ली –2/श्लोक –14)

अर्थात उस आत्मलोक में सूर्य प्रकाशित नहीं होता ,चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते और न ही वहां विद्युत का अस्तित्व है फिर अग्नि की तो बात ही करना व्यर्थ है ,इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि सब प्रकाशक पदार्थ उस परब्रह्म परमात्मा को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं।उस परमात्मा का अंश अत्यंत सूक्ष्मतम है।उसके अस्तित्व से ही समस्त पदार्थों का अस्तित्व है।

अब वैज्ञानिकों के निष्कर्ष देखें–‘ऐसी ही अवस्था में वह गॉड पार्टिकल यानी हिग्स बोसोन कण उत्पन्न हो सकता है, जिसमें डार्क मैटर, डार्क एनर्जी, एक्सट्रा डायमेंशंस, पदार्थ की मूलभूत प्रकृति, स्पेस और टाइम से लेकर उन सभी गुत्थियों का रहस्य छिपा है, जो अभी तक अनसुलझी हैं।‘ मैं वेद और उपनिषद के अतिरिक्त पुराण,धम्मपद,गीता,गुरुग्रंथ साहिब,शिवसूत्र ,जिन-केवली , नक्षत्र दीपिका,दुर्गा सप्तशती ,राम शलाका,गौतम केवली , ग्रह सारावली ,फलदीपिका ,सर्वार्थ चिंतामणी ,जातक पारिजात ,वाराह संहिता ,यहाँ तक की ‘कुरआन ‘और ‘बायबिल‘ तक में से ऐसे सैकड़ों उदाहरण आपको दे सकता हूँ जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि विज्ञान के शानदार राजमहलों का रास्ता आध्यात्मिकता के निस्वार्थ और दिव्य मार्ग से होकर गुजरता है।कहने का मतलब इतना हैकि हम अपनी जिस अध्यात्मिक विरासत को आज भूले बैठे हैं उसी का अंग्रेजी में अनुवाद करके अनेक विदेशी वैज्ञानिक नये अविष्कारों का दावा करके नोबेल सरीखे अनेक पुरस्कारों के हकदार बनते हैं ,इतना ही नहीं दुर्भाग  यह है कि हमअपने ही पूर्वजों के ज्ञान को टूटे फूटे और खंडित स्वरुप में अपनाकर विदेशी ज्ञान की शेखी बघारते फिरते हैं। आश्चर्य नहीं आने वाले कल में भगवान् राम और कृष्ण ,बुद्ध आदि की उत्पत्ति का आधार भी हमें विदेशी सन्दर्भों से ही तलाशना पड़े , क्योंकि हम गीता -वेद के सामने धूप -अगरबत्ती जला रहे हैं और विदेशी उन्हें पढ़-समझ रहे हैं।



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